कहानी संग्रह >> मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियाँ मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियाँमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की चुनी हुई श्रेष्ठ कहानियों का संकलन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस पुस्तक में संकलित कहानियों का चयन कथाकार मन्नू भंडारी ने स्वयं किया
है। इस चयन में एक कालक्रमिकता दिखाई देती है जो एक श्रेष्ठ कथाकार के रूप
में इनके रचनात्मक विकास का संकेत देती है। आज जब हिन्दी जगत में स्त्री
लेखन को लेकर नारीवाद और अस्मिता-विमर्श का बोलबाला है, मन्नू भंडारी की
कहानियां बिना किसी शोर-शराबे जलसे- जुलूस की शुलभ नारेबाजी और युद्ध
घोषणा के, शांत और धीमे स्वर में सहज रूप से सामने आती हैं और व्यक्तित्व
संपन्न, मूल्य सजग, उत्तरदायी स्त्री-दृष्टि से युक्त रचना का परिचय दे
जाती हैं। इनकी कहानियों में एक स्वतंत्र, न्यायप्रिय और संतुलित दृष्टि
का चौमुख रचनात्मक बोध है।
प्रेम दांपत्य और परिवार संबंधी कथानक के जरिए कथाकार अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे लेती है। अपनी सादगी और अनुभूति की प्रमाणिकता के कारण इनकी कहानियां विशेष रूप से प्रशंसा पाती है। स्त्री मन की आकांक्षाएँ पुरु। मन की ईर्ष्याएं, आधुनिकता का संयमित विरोध, मध्य वर्गीय बुद्धिजीवियों के छद्म ओढ़ी हुई आधुनिकता और जमी हुई रूढ़ियों पर इनकी पैनी निगाह हमेशा बनी रहती है। इन तमाम विशेषताओं से भरी मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियां आज के समय में हिन्दी पाठकों के लिए जीवनयापन का संबल हैं, जो एक साथ हमें संघर्ष करने के ताकत भी देती है और अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करने की रोशनी भी। हिन्दी कहानी में नया तेवर और नए स्वाद के साथ पांच दशक पूर्व जब मन्नू जी का पदार्पण हुआ था उसी समय इस धरोहर को हिन्दी पाठकों ने बड़े आराम से पहचान लिया था। यह संकलन एक श्रेष्ठ कथाकार की इस लंबी यात्रा को समझने हेतु पाठकों को एक सूत्र अवश्य देगा। इनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं : महाभोज, आपका बंटी, स्वामी बिना दीवारों का घर, आंखों देखा झूठ, मैं हार गई आदि।
प्रेम दांपत्य और परिवार संबंधी कथानक के जरिए कथाकार अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे लेती है। अपनी सादगी और अनुभूति की प्रमाणिकता के कारण इनकी कहानियां विशेष रूप से प्रशंसा पाती है। स्त्री मन की आकांक्षाएँ पुरु। मन की ईर्ष्याएं, आधुनिकता का संयमित विरोध, मध्य वर्गीय बुद्धिजीवियों के छद्म ओढ़ी हुई आधुनिकता और जमी हुई रूढ़ियों पर इनकी पैनी निगाह हमेशा बनी रहती है। इन तमाम विशेषताओं से भरी मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियां आज के समय में हिन्दी पाठकों के लिए जीवनयापन का संबल हैं, जो एक साथ हमें संघर्ष करने के ताकत भी देती है और अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करने की रोशनी भी। हिन्दी कहानी में नया तेवर और नए स्वाद के साथ पांच दशक पूर्व जब मन्नू जी का पदार्पण हुआ था उसी समय इस धरोहर को हिन्दी पाठकों ने बड़े आराम से पहचान लिया था। यह संकलन एक श्रेष्ठ कथाकार की इस लंबी यात्रा को समझने हेतु पाठकों को एक सूत्र अवश्य देगा। इनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं : महाभोज, आपका बंटी, स्वामी बिना दीवारों का घर, आंखों देखा झूठ, मैं हार गई आदि।
भूमिका
इस संकलन में मन्नू भंडारी द्वारा चुनी हुई उनकी ही श्रेष्ठ कहानियां
संकलित हैं, अतः माना जा सकता है कि ये उनके रचनात्मक बोध को समझने में
सहायक कहानियां हैं। इस चुनाव में एक हल्की सी कालक्रमिकता भी है, यानी एक
रचनाकार के रूप में उनके विकास का दस्तावेद यहां कमोबेश मौजूद है। इस
विकास यात्रा को समग्रतः देखते हुए स्पष्ट होता है कि आज जब हिन्दी जगत
में स्त्री के लेखन को लेकर नारीवाद और अस्मिता विमर्श का बोलबाला है,
मन्नू भंडारी की कहानियां बिना किसी अतिरिक्त शोर शराबे, जलसे जुलूस की
सुलभ नारेबाजी और ‘युद्ध देहि’ मुदा के, शांत और धीमे
स्वर
में प्रदर्शित करती हैं कि सहज रूप से व्यक्तित्व संपन्न मूल्य सजग और
उत्तरदायी स्त्री दृष्टि क्या होती है, यद्यपि जरूरी नहीं कि कहानी का
मुखपात्र या मुख्यपात्र कोई स्त्री ही हो।
यह एक स्वतंत्र न्यायप्रिय तथा संतुलित दृष्टि का चौमुख रचनात्मक बोध है। प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो शायद प्रेम, दांपत्य, परिवार संबंधी कथानक ही अधिकांश होंगे, जिन्हें स्त्री के सीमित अनुभवजगत का प्रमाण माना जाता है लेकिन इन्हीं कथाभूमियों का माध्यम बनाकर वे अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे लेती हैं। उदाहरण के लिए ‘छंत बनाने वाले’ कहानी को लें। मुखपात्र के साक्ष्य से वे दिखाती हैं कि संयुक्त प्रणाली के परिपाटीबद्ध पारिवारिक जीवन में सुरक्षा, सफलता, प्रतिष्ठा मर्यादा आदि के नाम पर व्यक्ति को क्या -क्या होम करना पड़ता है-अपनी सृजनात्मक प्रतिभा, स्वतंत्रता, सहजता, निर्णय क्षमता, सार्थकता का अहसास, शायद जिजीविषा और जीवंतता तक। परिवार के मुखिया के दंभ पर बिना किसी स्पष्ट दिप्पणी के भी, निहित अवमानना और उपहास के स्वर से वे अपना अभिप्राय प्रकट कर देती हैं। यह परिवार वस्तुतः सामंती समाज व्यवस्था का संक्षिप्त आकार है, जिसमें परिभाषाएं निश्चित हैं, मर्यादाएं स्थिर तथा व्यक्तियों के प्राप्य और गंतव्य पहले से चुने चुनाए, वह भी दूसरों के द्वारा। व्यक्ति की कसमसाहट का नाम वहां विचलन है और उसकी अनुमति नहीं है। रहने वालों को स्वयं भी अंदाजा नहीं कि वहां कितनी घुटन है। यह अंदाजा पाठक को मुखपात्र की वाग्भंगिमा और उसके अपने परिवार के खुलेपन व उसकी अपनी मनचाही जीवनशैली के साथ तुलना से मिलता है। लेखिका इस कहानी से परिपाटी के विरोध में और तथा कथित विचलन, परंतु वस्तुतः सृजनात्मक जीवन के खतरों के पक्ष में, अपना मंतव्य प्रकट कर देती है। सफलता की कसौटी उनके लिए भिन्न है।
इस समाज की छाया में ‘अकेली’, ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’, ‘श्मशान’ ‘नई नौकरी’ नामक कहानियां विशेष संदर्भ ग्रहण कर लेती हैं, हालांकि सब एक-दूसरे से भिन्न स्वतंत्र और असंबद्ध कहानियां हैं। इनका एक साथ, एक संकलन में होना इन्हें जिस तरह एक-दूसरे के साथ नत्थी करता है, वह केवल एक पुस्तकाकार की औपचारिकता भर नहीं रह जाता, बल्कि पाठक के मन में इन्हें एक-दूसरे के लिए संदर्भ बना देता है। यह पितृसत्तात्मक समाज है, जिसमें ‘छत बनाने वाले’ कहानी के पुरुष पात्र निश्चित निर्धारित भूमिकाओं के कारण वैयक्तिकता की कौन कहे, स्फुरण तक की बलि देने को भी विवश हैं, फिर भी उनके पास मुखिया की शाबाशी और अपना महत्त्व तो है।
स्त्री पात्रों की दशा तो केवल नामरहित और चेहराविहीन घूंघटमय अस्तित्व है। उक्त कहानियां इस समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष जकड़न में कुछ व्यक्ति चरित्रों को सामने लाती हैं अकेली में सोमा बुआ अपने परित्यक्त अकेले अस्तित्व को बुलाए, बिन बुलाए भी आस पास, मोहल्ले पड़ोस की सेवा मदद में व्यस्त करके सार्थक कर लेती है। यह जीवन को झेलने का उसका व्यक्तिगत तरीका है। लेकिन सेवा मदद देकर जीवन को सार्थक करने के लिए भी लोग जरूरी है; और लोग, रिश्तेदारियाँ मर्द से हुआ करते हैं। साल में एक बार, एक महीने के मेहमान, संन्यासी पति के कठोर अनुशासन में बिन बुलाए ना जाने की चेतावनी का पालन करते हुए, वह बुलावे के भ्रम में एक दूर के रईस रिश्तेदार के यहाँ उत्सव में जाने के लिए औकात से बढ़कर तैयारी करती है, लेकिन प्रतीक्षित समय तक बुलावे का न आना उसके उत्सुक, अयाचित आत्मदान की हास्यास्पदता और अकेली स्त्री के अस्तित्व की अकिंचनता को रेखांकित करता है। एक कमजोर लड़की की कहानी की नायिका रूप अपने अनजाने ही इस परिपाटीबद्ध समाज की मर्यादाओं के सांचे में ढली स्त्री का प्रतिरूप है। उसका अपना अस्तित्व मानो स्वयं एक आकारहीन तरल है, जो अपने बर्त्तन के अनुसार आकार ले लेता है। उसके लिए दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना अपने अस्तित्व की अंतरंग जरूरत और मूलभूत बनावट का प्रश्न है। दृढ़ता और संकल्प, टिकते नहीं, डटे रहना संभव ही नहीं। यह सदियों की अनुकूलन क्षमता के सांचे में से निकले हुए अस्तित्व की कहानी है।
‘श्मशान’ कहानी में एक के बाद एक तीन पत्नियों के निधन पर अपने भी जीवन का अंत मानकर रोने वाले युवक के माध्यम से कहानी का निष्कर्ष है कि मनुष्य वस्तुतः अपने आपको ही सबसे अधिक प्यार करता है और किसी प्रिय की हानि पर रोना वस्तुतः अपने ही उस अंश के लिए रोना है जो इस हानि में हाथों से छूट जाता है। हर बार का रोना सच है लेकिन है वह अपने ही लिए। कहानी का यह निष्कर्ष है तो मनुष्यमात्र के विषय में, लेकिन एक पुरुष पात्र के माध्यम से पाया जाकर इस सामाजिक सत्य की ओर भी संकेत करता है कि पुरुष स्त्री की अपेक्षा कुछ ‘अधिक’ मनुष्य हुआ करता है। इसी पितृसत्तात्मक समाज की कुछ अधिक परिष्कृत झलक ‘नई नौकरी’ नामक कहानी में मिलती है, जहां पति की बड़ी और नई नौकरी का मतलब यह हो जाता है कि एक स्वतंत्र व्यक्तित्व संपन्न स्त्री होने के बावजूद पत्नी ने केवल अपनी नौकरी छोड़े बल्कि यह भी कि पति की नई नौकरी के हिसाब से वह अपने रुचि-रुझान से लेकर जीवनचर्या तक को भी बदल डाले और नए-नए दायित्व और कर्त्तव्य ओढ़ ले। मानो पति की नहीं उसकी अपनी नौकरी बदल गई हो। अपनी पढ़ने लिखने की इच्छा और योग्यता शोध और आलेख वगैरह कुशल और विदुषी अध्यापिका के रूप में अपनी पहचान और अपना स्वतंत्र सखी संसार सब अलग धरे रह जाते हैं। यहां किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं है, कोई विरोध भी नहीं है, लेकिन कहानी सबकी स्वयं उस स्त्री तक की भी- इस सहज प्रत्याशा और निर्विरोध स्वीकृति को चित्रित करती है कि ऐसी किसी भी स्थिति में स्त्री ही अपनी इच्छा, रुचि, कैरियर योग्यता और प्रतिभा की बलि देगी; और स्त्री की द्वितीयक स्थिति को रेखांकित कर देती है। इस तरह से उद्घाटित स्थितियां भी कभी दुबारा उतनी सहज और मासूम नहीं रह जाती, वे यथार्थ का निर्वाह करते हुए विरोध दर्ज करने का एक कलात्मक तरीका बन जाती हैं।
उक्त कहानियां मन्नू के अपेक्षाकृत आरंभिक कृतित्व के उदाहरण हैं। इनमें भी वह दृष्टि मौजूद है जो आगे चलकर एक संतुलित मूल्य भावना का रूप लेती है, और जिसे यहां संकलित शेष कहानियों में अधिक प्रौढ़, परिपक्व कलात्मक उपलब्धि के रूप में पाया जा सकता है। ‘क्षय’, ‘सजा’ और ‘असामयिक मृत्यु’ को एक साथ पढ़ना इस दृष्टि से एक परस्पर पूरक पाठकीय अनुभव भी है। हमारी समाज व्यवस्था और पारिवारिक ढांचा, पुरुष और स्त्री दोनों के ही लिए दायित्व और कर्त्तव्य का एक घटोटोप है। वैयक्तिक अस्मिता या प्रतिभा के स्फुरण की गुंजाइश प्रायः दोनों के ही लिए नहीं है। स्त्री ही अकेली अन्याय का शिकार नहीं, पुरुष भी वहीं कहीं उसके आसपास मौजूद है। वस्तुतः अन्याय को साफ सीधे तौर पर प्रायः सूचित और लक्षित किया भी नहीं जा सकता। जहाँ कोई दबाव और जकड़बंदी हो वहां कोई विद्रोह भी करे। यहां तो पारिवारिक ढांचा प्रायः स्नेह, सुरक्षा और लगाव की तरह अपनी ही किसी भीतरी जरूरत का पर्याय भी हुआ करता है। इसीलिए इसमें इतने तनावों और दबावों को समेटने, झेलने और आत्मसात करके अपने लिए आगे जगह बना लेने की शक्ति भी है। मन्नू की कहानियों में प्रायः परिवार को समाज की एक प्रतिनिधि इकाई के रूप में, उसके अंतर्विरोधों के बीच, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार की शक्तियों के साथ देखा गया है।
मन्नू के पास नकारात्मक स्थितियों में फंसू समूचे परिवार की इस दारुण नियति की पहचान अचूक है कि दोषी चाहे कोई एक हो, दंड का भोक्ता पूरा परिवार ही होता है, बल्कि प्रायः वही, जो इस पूरी परिस्थिति में सबसे अधिक निर्दोष हुआ करता है। स्त्री विमर्श के इस दौर में इन कहानियों से गुजरना आश्वस्तिकर है, इस अर्थ में कि लेखिका का स्वयं स्त्री होना यहां किसी अकारण पक्षधरता और असंतुलन का ऐसा कारण नहीं बनता जो स्त्री का भोक्तव्य पुरुष की अपेक्षा बढ़कर दिखाने तथा पुरुष को खलनायक का चरित्र देने की लालच में अनावश्यक खींचातानी करवाता और पारिवारिक सहयोग और सहभागिता को एक असंभव स्वप्न बनाता हो। स्त्री की ओर से बराबरी और अधिकार की एक तरफा दावेदारी की बजाय मन्नू की स्त्रियां स्वतंत्र चुनाव द्वारा दायित्व का वरण करके बराबरी और अधिकार का अर्जन करती हैं। छत बनाने वाले के साक्ष्य पर परिवार की संस्था को सारी नकारात्मकता में देख पाने के बावजूद मन्नू जी पारिवारिक दायित्व बोध को विशेष रूप से समर्थन और पुष्टि देती हैं, जिसके लिए, परिवार के सभी सदस्य अपनी-अपनी तरह से त्याग करते हैं। विकल्प उसकी नकारात्मकता का चाहिए, स्वयं परिवार का नहीं।
‘क्षय’ में कुंती अपने पिता के सिखाए हुए विश्वासों और सिद्धांतों की प्रतिमा है। वह अनुचित समझौते करने से यथासंभव इंकार करती है। लाडला सिरचढ़ा छोटा भाई, परीक्षा में फेल हो जाता है, तो स्कूल में सिफारिश लेकर जाना मंजूर नहीं करती। व्यावहारिकता की कसौटी पर उसके ये विश्वास और सिंद्धात खरे नहीं उतरते। ऐसा वह अपने आस-पास चारों तरफ देखती भी है लेकिन स्वयं ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती। उसके सपनों की बलि ले लेता है। महीनों से खोल में बंद सितार को देखती और मन मसोस कर रह जाती है कि बजाने का समय ही नहीं।
यहां तक जूझते हुए वह न टूटती है, न झुकती है लेकिन वही पिता अब क्षयग्रस्त हैं, उनके इलाज की संभावनाएँ और सामर्थ्य चुक रही हैं, अपने सगे भाई के लिए विश्वास और सिद्धांत से न डिगने वाली कुंती अब ट्यूशन वाली छात्रा के लिए समझौते के द्वार पर ध्वस्त खड़ी है, उसकी जीवनीशक्ति हार रही है। क्षय मानो पिता के फेफड़े से बढ़कर आसपास फैल गया है, कुंती के संकल्प तक में भी। यह व्यक्ति की हार से अधिक परिवेश और व्यवस्था के प्रदूषण की कथा है, जिसमें सामान्यतः सदाशय तथा मूल्यविश्वासी व्यक्ति के लिए कसौटियां उसकी सामर्थ्य से बड़ी और कड़ी हो उठी हैं। लेकिन कुंती का स्त्री होने के बावजूद यह दायित्व उठाना, स्थिति की विकटता से अलग, गाने बजाने का विषय नहीं बनाया गया, उसकी दायित्व चेतना लेखिका के सहज मूल्यबोध का अंग है। सजा में किसी और की बेईमानी का दंड भोगने वाला स्वयं निर्दोष पात्र एक पुरुष है। मुकदमा चलता है, लंबा खिंचता है। अंततः निर्दोष प्रमाणित होता है, लेकिन इस बीच इतनी कीमत चुकाई और दुर्गति झेली जा चुकी है, मानो सचमुच सजा ही मिली हो।
सजा अकेले उस पात्र को नहीं, बल्कि पूरे परिवार को ही झेलनी पड़ती है और सारे अपमान और टूट फूट के बावजूद यह झेलना भी पारिवारिक मदद के द्वारा ही संभव होता है। असामयिक मृत्यु में पिता की मृत्यु के रूप में नियति का दंड भोगने वाला दीपू है, असामान्य प्रतिभा का धनी दीपू जिसके अभिनय कौशल ने पहले ही उसके लिए एक चमकीले सितारे का संभाव्य भविष्य घोषित कर रखा है, लेकिन दीपू परिवार की जिम्मेदारियां संभालने के लिए सब भुला देता है। असयम ही वह छोटे भाई बहन के लिए पिता का बाना पहन लेता है। मानो असामयिक मृत्यु का भागी केवल पिता ही नहीं, पुत्र भी हो। पानी के जहाज पर काम करने वाला ‘शायद’ का नायक साल दो साल में एक बार छुट्टी पर घर आता है। धीरे-धीरे उसकी भूमिका परिवार के लिए केवल कमाने में सिमटती चली गई है, अन्यथा वह अप्रासंगिक होता चला जा रहा है मानो छुट्टी के दौरान घर-घर का नाटक खेलकर लौटा हो। इंजन में तेल देना भर उसका प्राप्य दायित्व है, चाहे जहाज का इंजन हो, चाहे गृहस्थी। लेकिन इसी संक्षिप्त और अपर्याप्त भावनात्मक खुराक के सहारे जिंदगी चलती है।
यह एक स्वतंत्र न्यायप्रिय तथा संतुलित दृष्टि का चौमुख रचनात्मक बोध है। प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो शायद प्रेम, दांपत्य, परिवार संबंधी कथानक ही अधिकांश होंगे, जिन्हें स्त्री के सीमित अनुभवजगत का प्रमाण माना जाता है लेकिन इन्हीं कथाभूमियों का माध्यम बनाकर वे अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे लेती हैं। उदाहरण के लिए ‘छंत बनाने वाले’ कहानी को लें। मुखपात्र के साक्ष्य से वे दिखाती हैं कि संयुक्त प्रणाली के परिपाटीबद्ध पारिवारिक जीवन में सुरक्षा, सफलता, प्रतिष्ठा मर्यादा आदि के नाम पर व्यक्ति को क्या -क्या होम करना पड़ता है-अपनी सृजनात्मक प्रतिभा, स्वतंत्रता, सहजता, निर्णय क्षमता, सार्थकता का अहसास, शायद जिजीविषा और जीवंतता तक। परिवार के मुखिया के दंभ पर बिना किसी स्पष्ट दिप्पणी के भी, निहित अवमानना और उपहास के स्वर से वे अपना अभिप्राय प्रकट कर देती हैं। यह परिवार वस्तुतः सामंती समाज व्यवस्था का संक्षिप्त आकार है, जिसमें परिभाषाएं निश्चित हैं, मर्यादाएं स्थिर तथा व्यक्तियों के प्राप्य और गंतव्य पहले से चुने चुनाए, वह भी दूसरों के द्वारा। व्यक्ति की कसमसाहट का नाम वहां विचलन है और उसकी अनुमति नहीं है। रहने वालों को स्वयं भी अंदाजा नहीं कि वहां कितनी घुटन है। यह अंदाजा पाठक को मुखपात्र की वाग्भंगिमा और उसके अपने परिवार के खुलेपन व उसकी अपनी मनचाही जीवनशैली के साथ तुलना से मिलता है। लेखिका इस कहानी से परिपाटी के विरोध में और तथा कथित विचलन, परंतु वस्तुतः सृजनात्मक जीवन के खतरों के पक्ष में, अपना मंतव्य प्रकट कर देती है। सफलता की कसौटी उनके लिए भिन्न है।
इस समाज की छाया में ‘अकेली’, ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’, ‘श्मशान’ ‘नई नौकरी’ नामक कहानियां विशेष संदर्भ ग्रहण कर लेती हैं, हालांकि सब एक-दूसरे से भिन्न स्वतंत्र और असंबद्ध कहानियां हैं। इनका एक साथ, एक संकलन में होना इन्हें जिस तरह एक-दूसरे के साथ नत्थी करता है, वह केवल एक पुस्तकाकार की औपचारिकता भर नहीं रह जाता, बल्कि पाठक के मन में इन्हें एक-दूसरे के लिए संदर्भ बना देता है। यह पितृसत्तात्मक समाज है, जिसमें ‘छत बनाने वाले’ कहानी के पुरुष पात्र निश्चित निर्धारित भूमिकाओं के कारण वैयक्तिकता की कौन कहे, स्फुरण तक की बलि देने को भी विवश हैं, फिर भी उनके पास मुखिया की शाबाशी और अपना महत्त्व तो है।
स्त्री पात्रों की दशा तो केवल नामरहित और चेहराविहीन घूंघटमय अस्तित्व है। उक्त कहानियां इस समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष जकड़न में कुछ व्यक्ति चरित्रों को सामने लाती हैं अकेली में सोमा बुआ अपने परित्यक्त अकेले अस्तित्व को बुलाए, बिन बुलाए भी आस पास, मोहल्ले पड़ोस की सेवा मदद में व्यस्त करके सार्थक कर लेती है। यह जीवन को झेलने का उसका व्यक्तिगत तरीका है। लेकिन सेवा मदद देकर जीवन को सार्थक करने के लिए भी लोग जरूरी है; और लोग, रिश्तेदारियाँ मर्द से हुआ करते हैं। साल में एक बार, एक महीने के मेहमान, संन्यासी पति के कठोर अनुशासन में बिन बुलाए ना जाने की चेतावनी का पालन करते हुए, वह बुलावे के भ्रम में एक दूर के रईस रिश्तेदार के यहाँ उत्सव में जाने के लिए औकात से बढ़कर तैयारी करती है, लेकिन प्रतीक्षित समय तक बुलावे का न आना उसके उत्सुक, अयाचित आत्मदान की हास्यास्पदता और अकेली स्त्री के अस्तित्व की अकिंचनता को रेखांकित करता है। एक कमजोर लड़की की कहानी की नायिका रूप अपने अनजाने ही इस परिपाटीबद्ध समाज की मर्यादाओं के सांचे में ढली स्त्री का प्रतिरूप है। उसका अपना अस्तित्व मानो स्वयं एक आकारहीन तरल है, जो अपने बर्त्तन के अनुसार आकार ले लेता है। उसके लिए दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना अपने अस्तित्व की अंतरंग जरूरत और मूलभूत बनावट का प्रश्न है। दृढ़ता और संकल्प, टिकते नहीं, डटे रहना संभव ही नहीं। यह सदियों की अनुकूलन क्षमता के सांचे में से निकले हुए अस्तित्व की कहानी है।
‘श्मशान’ कहानी में एक के बाद एक तीन पत्नियों के निधन पर अपने भी जीवन का अंत मानकर रोने वाले युवक के माध्यम से कहानी का निष्कर्ष है कि मनुष्य वस्तुतः अपने आपको ही सबसे अधिक प्यार करता है और किसी प्रिय की हानि पर रोना वस्तुतः अपने ही उस अंश के लिए रोना है जो इस हानि में हाथों से छूट जाता है। हर बार का रोना सच है लेकिन है वह अपने ही लिए। कहानी का यह निष्कर्ष है तो मनुष्यमात्र के विषय में, लेकिन एक पुरुष पात्र के माध्यम से पाया जाकर इस सामाजिक सत्य की ओर भी संकेत करता है कि पुरुष स्त्री की अपेक्षा कुछ ‘अधिक’ मनुष्य हुआ करता है। इसी पितृसत्तात्मक समाज की कुछ अधिक परिष्कृत झलक ‘नई नौकरी’ नामक कहानी में मिलती है, जहां पति की बड़ी और नई नौकरी का मतलब यह हो जाता है कि एक स्वतंत्र व्यक्तित्व संपन्न स्त्री होने के बावजूद पत्नी ने केवल अपनी नौकरी छोड़े बल्कि यह भी कि पति की नई नौकरी के हिसाब से वह अपने रुचि-रुझान से लेकर जीवनचर्या तक को भी बदल डाले और नए-नए दायित्व और कर्त्तव्य ओढ़ ले। मानो पति की नहीं उसकी अपनी नौकरी बदल गई हो। अपनी पढ़ने लिखने की इच्छा और योग्यता शोध और आलेख वगैरह कुशल और विदुषी अध्यापिका के रूप में अपनी पहचान और अपना स्वतंत्र सखी संसार सब अलग धरे रह जाते हैं। यहां किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं है, कोई विरोध भी नहीं है, लेकिन कहानी सबकी स्वयं उस स्त्री तक की भी- इस सहज प्रत्याशा और निर्विरोध स्वीकृति को चित्रित करती है कि ऐसी किसी भी स्थिति में स्त्री ही अपनी इच्छा, रुचि, कैरियर योग्यता और प्रतिभा की बलि देगी; और स्त्री की द्वितीयक स्थिति को रेखांकित कर देती है। इस तरह से उद्घाटित स्थितियां भी कभी दुबारा उतनी सहज और मासूम नहीं रह जाती, वे यथार्थ का निर्वाह करते हुए विरोध दर्ज करने का एक कलात्मक तरीका बन जाती हैं।
उक्त कहानियां मन्नू के अपेक्षाकृत आरंभिक कृतित्व के उदाहरण हैं। इनमें भी वह दृष्टि मौजूद है जो आगे चलकर एक संतुलित मूल्य भावना का रूप लेती है, और जिसे यहां संकलित शेष कहानियों में अधिक प्रौढ़, परिपक्व कलात्मक उपलब्धि के रूप में पाया जा सकता है। ‘क्षय’, ‘सजा’ और ‘असामयिक मृत्यु’ को एक साथ पढ़ना इस दृष्टि से एक परस्पर पूरक पाठकीय अनुभव भी है। हमारी समाज व्यवस्था और पारिवारिक ढांचा, पुरुष और स्त्री दोनों के ही लिए दायित्व और कर्त्तव्य का एक घटोटोप है। वैयक्तिक अस्मिता या प्रतिभा के स्फुरण की गुंजाइश प्रायः दोनों के ही लिए नहीं है। स्त्री ही अकेली अन्याय का शिकार नहीं, पुरुष भी वहीं कहीं उसके आसपास मौजूद है। वस्तुतः अन्याय को साफ सीधे तौर पर प्रायः सूचित और लक्षित किया भी नहीं जा सकता। जहाँ कोई दबाव और जकड़बंदी हो वहां कोई विद्रोह भी करे। यहां तो पारिवारिक ढांचा प्रायः स्नेह, सुरक्षा और लगाव की तरह अपनी ही किसी भीतरी जरूरत का पर्याय भी हुआ करता है। इसीलिए इसमें इतने तनावों और दबावों को समेटने, झेलने और आत्मसात करके अपने लिए आगे जगह बना लेने की शक्ति भी है। मन्नू की कहानियों में प्रायः परिवार को समाज की एक प्रतिनिधि इकाई के रूप में, उसके अंतर्विरोधों के बीच, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार की शक्तियों के साथ देखा गया है।
मन्नू के पास नकारात्मक स्थितियों में फंसू समूचे परिवार की इस दारुण नियति की पहचान अचूक है कि दोषी चाहे कोई एक हो, दंड का भोक्ता पूरा परिवार ही होता है, बल्कि प्रायः वही, जो इस पूरी परिस्थिति में सबसे अधिक निर्दोष हुआ करता है। स्त्री विमर्श के इस दौर में इन कहानियों से गुजरना आश्वस्तिकर है, इस अर्थ में कि लेखिका का स्वयं स्त्री होना यहां किसी अकारण पक्षधरता और असंतुलन का ऐसा कारण नहीं बनता जो स्त्री का भोक्तव्य पुरुष की अपेक्षा बढ़कर दिखाने तथा पुरुष को खलनायक का चरित्र देने की लालच में अनावश्यक खींचातानी करवाता और पारिवारिक सहयोग और सहभागिता को एक असंभव स्वप्न बनाता हो। स्त्री की ओर से बराबरी और अधिकार की एक तरफा दावेदारी की बजाय मन्नू की स्त्रियां स्वतंत्र चुनाव द्वारा दायित्व का वरण करके बराबरी और अधिकार का अर्जन करती हैं। छत बनाने वाले के साक्ष्य पर परिवार की संस्था को सारी नकारात्मकता में देख पाने के बावजूद मन्नू जी पारिवारिक दायित्व बोध को विशेष रूप से समर्थन और पुष्टि देती हैं, जिसके लिए, परिवार के सभी सदस्य अपनी-अपनी तरह से त्याग करते हैं। विकल्प उसकी नकारात्मकता का चाहिए, स्वयं परिवार का नहीं।
‘क्षय’ में कुंती अपने पिता के सिखाए हुए विश्वासों और सिद्धांतों की प्रतिमा है। वह अनुचित समझौते करने से यथासंभव इंकार करती है। लाडला सिरचढ़ा छोटा भाई, परीक्षा में फेल हो जाता है, तो स्कूल में सिफारिश लेकर जाना मंजूर नहीं करती। व्यावहारिकता की कसौटी पर उसके ये विश्वास और सिंद्धात खरे नहीं उतरते। ऐसा वह अपने आस-पास चारों तरफ देखती भी है लेकिन स्वयं ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती। उसके सपनों की बलि ले लेता है। महीनों से खोल में बंद सितार को देखती और मन मसोस कर रह जाती है कि बजाने का समय ही नहीं।
यहां तक जूझते हुए वह न टूटती है, न झुकती है लेकिन वही पिता अब क्षयग्रस्त हैं, उनके इलाज की संभावनाएँ और सामर्थ्य चुक रही हैं, अपने सगे भाई के लिए विश्वास और सिद्धांत से न डिगने वाली कुंती अब ट्यूशन वाली छात्रा के लिए समझौते के द्वार पर ध्वस्त खड़ी है, उसकी जीवनीशक्ति हार रही है। क्षय मानो पिता के फेफड़े से बढ़कर आसपास फैल गया है, कुंती के संकल्प तक में भी। यह व्यक्ति की हार से अधिक परिवेश और व्यवस्था के प्रदूषण की कथा है, जिसमें सामान्यतः सदाशय तथा मूल्यविश्वासी व्यक्ति के लिए कसौटियां उसकी सामर्थ्य से बड़ी और कड़ी हो उठी हैं। लेकिन कुंती का स्त्री होने के बावजूद यह दायित्व उठाना, स्थिति की विकटता से अलग, गाने बजाने का विषय नहीं बनाया गया, उसकी दायित्व चेतना लेखिका के सहज मूल्यबोध का अंग है। सजा में किसी और की बेईमानी का दंड भोगने वाला स्वयं निर्दोष पात्र एक पुरुष है। मुकदमा चलता है, लंबा खिंचता है। अंततः निर्दोष प्रमाणित होता है, लेकिन इस बीच इतनी कीमत चुकाई और दुर्गति झेली जा चुकी है, मानो सचमुच सजा ही मिली हो।
सजा अकेले उस पात्र को नहीं, बल्कि पूरे परिवार को ही झेलनी पड़ती है और सारे अपमान और टूट फूट के बावजूद यह झेलना भी पारिवारिक मदद के द्वारा ही संभव होता है। असामयिक मृत्यु में पिता की मृत्यु के रूप में नियति का दंड भोगने वाला दीपू है, असामान्य प्रतिभा का धनी दीपू जिसके अभिनय कौशल ने पहले ही उसके लिए एक चमकीले सितारे का संभाव्य भविष्य घोषित कर रखा है, लेकिन दीपू परिवार की जिम्मेदारियां संभालने के लिए सब भुला देता है। असयम ही वह छोटे भाई बहन के लिए पिता का बाना पहन लेता है। मानो असामयिक मृत्यु का भागी केवल पिता ही नहीं, पुत्र भी हो। पानी के जहाज पर काम करने वाला ‘शायद’ का नायक साल दो साल में एक बार छुट्टी पर घर आता है। धीरे-धीरे उसकी भूमिका परिवार के लिए केवल कमाने में सिमटती चली गई है, अन्यथा वह अप्रासंगिक होता चला जा रहा है मानो छुट्टी के दौरान घर-घर का नाटक खेलकर लौटा हो। इंजन में तेल देना भर उसका प्राप्य दायित्व है, चाहे जहाज का इंजन हो, चाहे गृहस्थी। लेकिन इसी संक्षिप्त और अपर्याप्त भावनात्मक खुराक के सहारे जिंदगी चलती है।
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